वो आदमी और उसका लाल साईकिल- एक लोक कविता
वो आदमी और उसका साइकिल
इक दिन अचानक से, अपना ये छोटा-मोटा गाँव में, एक आदमी लाल साइकिल पर आया था, इधर-उधर देखकर उसने कहा, "ये लखनऊ है कहाँ?" फिर मैंने बोला, "अरे भैया जी, लखनऊ कहाँ से, ये तो है रायबरेली, दो घंटे का सफर है, थोड़ा और उत्तर जाओ, फिर पहुँच के वहाँ मस्त नवाबी कबाब खाओ।"
थोड़ा गपशप करके उसने पूछा, "अच्छा तो आप यहाँ किसान हैं?" "नहीं नहीं, हम तो यहाँ के प्रधान हैं।" "ओ अच्छा! मिलके बहुत प्रसन्न हुआ।" थोड़ी शांति के बाद फिर उसने बोला, "जब हम लखनऊ से आते होंगे, तब यहाँ इस गाँव से फिर गुजरेंगे, और मैं ये करूँ कि वहाँ आपके लिए मिठाई लाऊँ?" "ठीक है जी, आप ये करिएगा, मैं यहाँ आपका प्रतीक्षा करूँगा।"
फिर विदा-बिदा करके वो चल दिया सफर पे। पर सच कहूँ तो बड़ा अजीब लगा था मुझको, कि एक रमेेश शुक्ला मेरे लिए जलेबी ला रहा था। पर मैंने इस पर ज़्यादा ध्यान न दिया, गाँव का नियमित काम किया और करवाया।
पर हफ्तों बाद जब वो लौटा लाल साइकिल पर, गाँव भर में हलचल मच गई हर ओर, किसी ने सोचा भी न था, कि वो साधारण सा आदमी कोई नेता होगा। लोगों ने तो उसे बस गरीब समझकर नज़रअंदाज़ किया था उस दिन। सिर्फ मैंने ही दिशा दी थी उसे, बात की, उसे अपना मेहमान माना था।
अब वही आदमी हमारे विधायक निकले, और गाँव में संदेश लेकर आए थे, "प्रधान जी, आप अकेले थे जिन्होंने मदद की थी, इसलिए हम आपको साथ चलने का न्योता देने आए हैं। दल के सदस्य बनें, राजनीति में कदम बढ़ाएँ, संभव है अगला विधायक भी आप ही कहलाएँ।"
गाँव वाले चकित, पर गर्वित थे उस दिन, लाल साइकिल वाले का आगमन अब सम्मानित था। और मैं सोच रहा था, कभी-कभी छोटे से काम भी ज़िंदगी की राहें बदल जाते हैं।